सुप्रीम कोर्ट का फैसला : अब पति-पत्नी और ‘वो’ अपराध नहीं
केरल के एक अनिवासी भारतीय (एनआरआई) जोसेफ साइन ने विवाहेतर संबंधों को लेकर जब याचिका दाखिल की थी, तो किसी को यह अंदाज भी नहीं था कि इससे संबंधित फैसला भारतीय समाज के लिए ऐतिहासिक बन जाएगा। जो मील का ऐसा पत्थर बनेगा जो भारत में अब तक पुरुषवादी मानकिसकता को तहस-नहस कर देगा। जोसेफ साइन ने इस याचिका में आइपीसी की धारा-497 की संवैधानिकता को चुनौती दी थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल दिसंबर में सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया था।
इसके बाद इसे जनवरी में संविधान पीठ को भेज दिया था, जिस पर गुरुवार को फैसला आया तो एक मिसाल कायम कर गया। इससे पहले 8 अगस्त को हुई सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने कहा था कि अडल्टरी अपराध है और इससे परिवार और विवाह तबाह होता है।
यह है सुप्रीम कोर्ट का फैसला
याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार से जुड़े दंडात्मक कानूनों को न केवल असंवैधानिक घोषित कर दिया, बल्कि उन्हें निरस्त भी कर दिया। कोर्ट ने व्यभिचार को अपराध मानने वाली आइपीसी की धारा-497 को लिंग आधारित भेदभाव वाला बताते हुए असंवैधानिक ठहरा दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि पति अपनी पत्नी का मालिक नहीं है। पत्नी को बराबरी का अधिकार है और उसे यौन स्वायत्तता भी हासिल है।
अभी तक यह था कानून
आइपीसी की धारा-497 (एडल्टरी) के मुताबिक कोई व्यक्ति जान-बूझकर दूसरे की पत्नी से उसके पति की सहमति के बगैर शारीरिक संबंध बनाता है और वह संबंध दुष्कर्म की श्रेणी में नहीं आता तो वह व्यक्ति व्यभिचार (एडल्टरी) का अपराध करता है। उसे पांच वर्ष तक की कैद या जुर्माने की सजा हो सकता है। देश में यह कानून 158 साल पहले 1860 में बना था। इसमें ही एक धारा और जुड़ी हुई थी सीआरपीसी की धारा-198 (2)। इस अपराध में सिर्फ पति ही शिकायत कर सकता है। पति की अनुपस्थिति में महिला की देखभाल करने वाला व्यक्ति कोर्ट की इजाजत से पति की ओर से शिकायत कर सकता है। आईपीसी की धारा-497 के प्रावधान के तहत पुरुषों को अपराधी माना जाता है जबकि महिला पीड़िता मानी गई है। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता का कहना था कि महिलाओं को अलग तरीके से नहीं देखा जा सकता क्योंकि आईपीसी की किसी भी धारा में जेंडर विषमताएं नहीं हैं। 1860 में बना अडल्टरी कानून लगभग 158 साल पुराना था। इसके तहत अगर कोई पुरुष किसी दूसरी शादीशुदा औरत के साथ उसकी सहमति से शारीरिक संबंध बनाता है, तो महिला के पति की शिकायत पर पुरुष को अडल्टरी कानून के तहत अपराधी माना जाता था। ऐसा करने पर पुरुष को पांच साल की कैद और जुर्माना या फिर दोनों ही सजा का प्रवाधान था।
यह कहा संविधान पीठ के न्यायाधीशों ने
प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाया है। पांच सदस्यीय पीठ के चार जजों ने अलग-अलग तर्क दिए हैं, लेकिन उनका फैसला सहमति वाला था। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि धारा-497 लिंग आधारित घिसी पिटी सोच है। इससे महिला की गरिमा को ठेस पहुंचती है। इस धारा में संबंध बनाने के लिए पति की सहमति या सुविधा एक तरह से पत्नी को पति के अधीन बनाती है। इसलिए यह धारा अनुच्छेद-21 में मिले स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार का उल्लंघन करती है। इसी तरह जस्टिस आरएफ नरीमन ने कहा कि यह कानून पत्नी को पति की संपत्ति की तरह मानता है। पुरुष को हक है कि वह पत्नी से संबंध बनाने वाले व्यक्ति पर मुकदमा करे, लेकिन महिला उस पति पर मुकदमा नहीं कर सकती जो किसी दूसरे की पत्नी से संबंध बनाता है और न ही पत्नी को इस महिला के खिलाफ मुकदमा करने का हक है, जिससे उसके पति ने संबंध बनाए हैं। कानून में पुरुषवादी मानसिकता झलकती है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा है कि कानून शादीशुदा महिला और शादीशुदा पुरुष में भेद करता है। जीवनसाथी की वफादारी सुनिश्चित करने के लिए पुरुष को आपराधिक दंड का अधिकार मिला हुआ है। इस कानून का प्रभाव है कि पति महिला की यौन इच्छाओं को नियंत्रित कर सकता है, उसके पास इसकी चाबी है। यह कानून महिला की यौन स्वायत्तता में कटौती करता है। यह धारा गरिमा, स्वतंत्रता, निजता और यौन स्वायत्तता के अनुच्छेद-21 में मिले मौलिक अधिकार को नकारती है। जस्टिस खानविलकर ने कहा कि विवाहेतर संबंध अपराध तो नहीं होगा, लेकिन अगर पत्नी अपने लाइफ पार्टनर (पति) के व्यभिचार के कारण खुदकुशी करती है। तो ऐसे केस में सबूत पेश करने के बाद पति पर खुदकुशी के लिए उकसाने का मामला चल सकता है। पीठ में शामिल एकमात्र महिला जज जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने भी अपने फैसले में यह रेखांकित किया कि भारत में मौजूद भारतीय-ब्राह्मण परंपरा के तहत महिलाओं के सतीत्व को उनका सबसे बड़ा धन माना जाता था। पुरुषों की रक्त की पवित्रता बनाये रखने के लिए महिलाओं के सतीत्व की कड़ाई से सुरक्षा की जाती थी। जस्टिस मल्होत्रा ने कहा, ‘इसका मकसद सिर्फ महिलाओं के शरीर की पवित्रता की सुरक्षा करना नहीं था, बल्कि यह सुनिश्चित करना था कि महिलाओं की यौन इच्छा पर पतियों का नियंत्रण बना रहे।’ उन्होंने कहा कि हिंदू कोड आने के साथ ही 1955-56 के बाद एक हिंदू व्यक्ति सिर्फ एक पत्नी से विवाह कर सकता था और हिंदू कानून में परस्त्रीगमन को तलाक का एक आधार बनाया गया। जस्टिस मल्होत्रा ने अपने फैसले में इस तथ्य का जिक्र किया कि वर्ष 1837 में भारत के विधि आयोग द्वारा जारी भारतीय दंड संहिता के पहले मसौदे में परस्त्रीगमन को अपराध के रूप में शामिल नहीं किया गया था। यह भी कहा कि वर्ष 1855 तक हिंदू जितनी महिलाओं से चाहें, विवाह कर सकते थे। वर्ष 1860 में जब दंड संहिता लागू हुई, उस वक्त देश की बहुसंख्यक जनता हिंदुओं के लिए तलाक का कोई कानून नहीं था, क्योंकि विवाह को संस्कार का हिस्सा समझा जाता था।
समझें पूरे फैसले के निष्कर्ष को
प्रधान न्यायाधीश ने स्वयं और जस्टिस एएम खानविलकर की ओर से फैसला दिया। जबकि जस्टिस आरएफ नरीमन, डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्र ने अलग-अलग एक-दूसरे से सहमति जताने वाला फैसला सुनाते हुए एक सुर से 158 साल पुराने कानून (आइपीसी की धारा-497 और सीआरपीसी की धारा 198-2) को रद कर दिया। कोर्ट ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यभिचार किसी भी तरह के दीवानी मुकदमे यहां तक कि तलाक का आधार हो सकता है, लेकिन मूल सवाल यह है कि इसे दंडनीय अपराध माना जाए कि नहीं। कोर्ट ने साफ किया कि इस फैसले से यह न समझा जाए कि इससे शादी तोड़ने का कोई लाइसेंस मिल गया है। पति-पत्नी का एक-दूसरे के प्रति वफादार रहना एक आदर्श स्थिति है। कोर्ट आदर्श स्थिति पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा है। व्यभिचार अपराध की धारणा में फिट नहीं होता। अगर इसे अपराध माना जाएगा तो यह शादीशुदा निजता में दखल होगा। बेहतर होगा कि इसे तलाक का एक आधार रहने दिया जाए। बहुत से देशों में यह अपराध नहीं है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि व्यभिचार भले अपराध नहीं हो सकता लेकिन यदि अपने जीवन साथी के व्यभिचार से आहत होकर कोई खुदकशी करे और उसके सुबूत पेश किए जाएं तो उसे आत्महत्या के लिए उकसावा माना जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि आइपीसी की धारा 497 महिला के सम्मान के खिलाफ है। कोर्ट ने कहा कि महिलाओं को हमेशा समान अधिकार मिलना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि महिला को समाज की इच्छा के हिसाब से सोचने को नहीं कहा जा सकता। संसद ने भी महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा पर कानून बनाया हुआ है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली इस बेंच ने कहा कि हमारे लोकतंत्र की खूबी ही मैं, तुम और हम की है। कोर्ट ने यह भी कहा कि अडल्टरी (विवाहेतर संबंध) तलाक का आधार हो सकता है, लेकिन यह अपराध नहीं होगा। कोर्ट ने कहा कि स्त्री की देह पर उसका अपना हक है, इससे समझौता नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि यह उसका अधिकार है, उस पर किसी तरह की शर्तें नहीं थोपी जा सकती हैं।
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